दिल्ली में अपने कमरे में बैठा कुरुक्षेत्र मैगज़ीन का ग्रामीण शिक्षा विशेषांक पढ़ रहा था।विभिन्न सरकारी योजनाओं की व्यापक सफलताओं का वर्णन करते हुए, "पढ़ेगा भारत तभी बढ़ेगा भारत "जैसे वाक्यों के साथ बुद्धिजीवियों के लेख थे।साथ में कई फोटोग्राफ भी संलग्न थे, जिन्हें देखकर मैं अचंभित हो रहा था .....उसमें शाला में लाइन से बैठे बच्चे चमचमाती एक जैसी थालियों में पुड़ी,खीर,पापड़,आचार का सेवन कर रहे थे।दूसरी फोटो में सभी बच्चे ड्रेस में थे,प्राइमरी के बच्चे टेबल और बेंच में बैठकर पढ़ रहे थे।एक फोटो में ग्रामीण बच्चे कंप्यूटर पर खिटपिट करते दिखे ........लेखों में दर्शाया तो यही गया कि सभी सरकारी शालाओं में कमोबेश यही स्थिति है,कई हज़ार करोड़ की योजनाओं का हवाला देते हुए यही साबित करने की कोशिश थी कि अब देश में सुदूर अंचलों में भी 14 वर्ष तक के हर बच्चे को यही सुविधा उपलब्ध है और देश उन्नति की ओर अग्रसर है।अनायास मुझे अपने गृह राज्य की प्राथमिक शाला का ख्याल आ गया ....वहां बच्चे ड्रेस में तो कभी नहीं दिखे !! खुद ही घर से एक थाली लेकर आते हैं और भोजन के नाम पे जो (चावल और कभी कभी मिलने वाली सब्जी अन्यथा कढी से ही काम चलाया जाता है ) परोसा जाता है, उसे खाकर एक साथ बर्तन धोने जाते हैं,ये पूरा कार्यक्रम 2 से 3 घंटे तक चलता है,ऐसे में पढाई का तो भगवन ही मालिक है । बेंच तो दूर की बात कुछ क्लास में दरी भी नहीं है।
मुझे लगा शायद विकसित राज्यों में ये योजनायें सफल हैं और ये तस्वीरें वहां की हैं।मुझे अपने राज्य के पिछड़े होने का एहसास हुआ ....मेरे राज्य को सरकारी योजनाओं का सही लाभ क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसके राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक पहलुओं के बारे में विचार करता उससे पहले ही दरवाजे पर दस्तक हुई।पसीने से भीगा हुआ, मटमैले कपड़ों में 10-11 वर्ष का एक बालक मेरा टिफ़िन लेकर आया था,मेरे पूछने पर बताया अब से दद्दा नहीं आएंगे मैं ही टिफ़िन पहुंचाऊँगा।उसे स्कूल ड्रेस पहने देखकर मेरा कौतुहल बढ़ा, किसी पब्लिक स्कूल का ड्रेस था।मैंने पूछा तुम्हारे स्कूल का ड्रेस है ये ??नहीं मैं स्कूल नहीं जाता .....और शर्माता हुआ सीढियों पे दौड़ गया,उसे और भी जगह टिफ़िन पहुँचाना था।
विडम्बना ही है कि इन तमाम योजनाओं से वंचित ये बालक इन योजनाओं को मूर्त रूप देने वाली संसद से 4 km की दूरी पर ही रहता है।
मुझे लगा शायद विकसित राज्यों में ये योजनायें सफल हैं और ये तस्वीरें वहां की हैं।मुझे अपने राज्य के पिछड़े होने का एहसास हुआ ....मेरे राज्य को सरकारी योजनाओं का सही लाभ क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसके राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक पहलुओं के बारे में विचार करता उससे पहले ही दरवाजे पर दस्तक हुई।पसीने से भीगा हुआ, मटमैले कपड़ों में 10-11 वर्ष का एक बालक मेरा टिफ़िन लेकर आया था,मेरे पूछने पर बताया अब से दद्दा नहीं आएंगे मैं ही टिफ़िन पहुंचाऊँगा।उसे स्कूल ड्रेस पहने देखकर मेरा कौतुहल बढ़ा, किसी पब्लिक स्कूल का ड्रेस था।मैंने पूछा तुम्हारे स्कूल का ड्रेस है ये ??नहीं मैं स्कूल नहीं जाता .....और शर्माता हुआ सीढियों पे दौड़ गया,उसे और भी जगह टिफ़िन पहुँचाना था।
विडम्बना ही है कि इन तमाम योजनाओं से वंचित ये बालक इन योजनाओं को मूर्त रूप देने वाली संसद से 4 km की दूरी पर ही रहता है।
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