एक साहब थे ! चूँकि परिवार के अधिकतर सदस्यों से उम्र में बड़े थे और बोलते वक़्त किसी की नहीं सुनते थे इसलिए घर के लोग उनकी सुन लेते थे।छोटे मोटे ब्लॉग लिखकर अपने आप को बड़ा साहित्यकार समझते थे,जब भी मौका मिलता अर्ध ज्ञान धारा प्रवाहित करने से नहीं चूकते थे।फेसबुक में उनके वंशवृक्ष को देखकर यही परिलक्षित होता था कि इतने वृहद् परिवार में बड़े आत्मीय व्यक्ति हैं।जब भी कोई रिश्तेदार ऑनलाइन मिलता उसे खरी खोटी सुनाते कि तुम हमें ऑनलाइन देखकर भी पहले से शिष्टाचार नहीं करते हो...बदतमीज़ हो गये हो,२ ४ लाइक्स और कमेंट मिल जाने से घमंड आ गया है।मात्र २ ० ० फ्रेंड्स हैं और अपने आपको बड़ा सोशिअल समझते हो, हमारे हज़ार से ऊपर हैं तब भी हम विनम्र रहते हैं।तुम तो न किसी का स्टेटस लाइक करते हो न कमेन्ट करते हो .....तो कोई तुम्हारे में क्यों करेगा भला ??बहुत अकड़ आ गई है। ..................
धीरे धीरे सारे रिश्तेदारों ने उन्हें ऑफलाइन कर दिया। इससे व्यथित होकर अब वह फेसबुक पर ही केक,पटाखों,फूल मालाओं में टैग करके त्यौहार मनाते हैं .........उस पर आये कमेंट्स और लाइक्स से सामाजिक होने का दंभ भरते हैं।
बड़ी मज़बूरी में किसी शाम उन्हें एक समारोह में जाना पड़ा .......इनके सभी रिश्तेदार जो इनकी नजरों में अनसोशिअल थे वहां मौजूद लोगों से गप्पे लड़ा रहे थे और इन्हें कोई दुआ सलाम करने वाला भी नहीं मिल रहा था।जैसे तैसे इन्होंने कुछ देर रुकने की रस्म अदा की और लोगों की नज़रों से बचते हुए निकल लिए वापस अपने फेसबुक के तथाकथित सामाजिक जीवन में।
बड़ी मज़बूरी में किसी शाम उन्हें एक समारोह में जाना पड़ा .......इनके सभी रिश्तेदार जो इनकी नजरों में अनसोशिअल थे वहां मौजूद लोगों से गप्पे लड़ा रहे थे और इन्हें कोई दुआ सलाम करने वाला भी नहीं मिल रहा था।जैसे तैसे इन्होंने कुछ देर रुकने की रस्म अदा की और लोगों की नज़रों से बचते हुए निकल लिए वापस अपने फेसबुक के तथाकथित सामाजिक जीवन में।